नियति

हेतु अहेतु के परिणाम में, है योग नियति का कितना?
पुरुषार्थ संकल्प पर हावी, आखिर कितनी है विधना !

यह तो सत्य प्रभासित है कि, है रचनाकार नियंता।
अपनी भली बुरी का किंतु, है प्राणी स्वयं अभियंता।।

माना मानस संकल्प सृजन है, परमेश्वर का सृष्टि।
क्रियाकलाप निर्बाधित किंतु, व्यष्टि हो या समष्टि।।

चंद्र सूर्य नवग्रह अगोचर, वेला काल अरु योग।
अपने कार्य करणी जैसा ही, हर प्राणी का उपभोग।।

कर्म सदा निर्धारित करते, अपना अपना भाग्य।
मनवांछित हो लब्ध यदि तो, यह उत्तम सौभाग्य।।

जड़ चेतन उस परमशक्ति का, है शुद्ध रुप से अंश।
कायिक मानसिक क्रियास्वरुप ही, फलीभूत है वंश।।

आत्मबोधि अरु परम ज्ञान संग, हो निर्विकार जो दृष्टि।
मनुज स्वयं निर्धारित करता, अपनी पृथक इक सृष्टि।।

दृढ़ इच्छा संकल्प समाहित, हो निष्ठापूर्ण आवर्तन।
हो मुदित नियंता करे मनुज जो, नियति में परिवर्तन।।

उठो पार्थ और स्वंय पहचानो, अपनी शक्ति का राज।
क्या नियति नियंता की इच्छा, परिवर्तित सकल समाज।।