मानस ज्योति

मानस ज्योति गुम हुई अकिंचन बिखरते अंधेरे में
खो चुका है मानव उलझनों की उधेड़बुन में
रिश्तों की तना कसी में
लिए बैठा मानस टूटा अन्तर्मन
और कितना बोझ और कितनी पीड़ाओं की गठरी है बाकी
और कितनी-कितनी शिकायतों की किश्तें पड़ेगी चुकानी
कितने कर्मों के ब्याज बाकी
जीवन के खोखले मानदंड में खुद को स्थापित करने के लिए
और कितनी पीड़ाओं को लेकर जलते रहना होगा
खुद की अस्मिता और पहचान को बचाने के लिए
और कितनी भाग दौड़ कितनी आपाधापी में
खुद को जलाना होगा इस मानव को
अचानक दुनिया के अंधेरे में खोती जीवन-ज्योति
और कितने प्रश्नों के उत्तर बाकी, है देने इस मानव को।