इक रोग इश्क़ का
लगा ये रोग जो तुमको।
तो तुम सब भूल जाओगे॥
ना खुद को जान पाओगे।
ना तुम पहचान पाओगे॥
जिधर डालोगे तुम नजरें।
सब अलहदा ही पाओगे॥
हुजूर ये रोग है ही कुछ ऐसा।
कि इसमें सब भूल जाओगे॥
ना होगा कोई भी शिकवा।
ना तुम कोई गिला ही पाओगे॥
जमाने से मिली हर सौगात में।
तुम प्रेम का अमृत ही पाओगे॥
ना होगा कोई भी दुश्मन।
ना कोई वैरी ही पाओगे॥
जमाने के सभी रिश्तों से।
तुम बस प्यार पाओगे॥
जो देखोगे सभी को तुम।
प्रेम की कातिल निगाहों से॥
मेरा दावा है कि तुम भी सदा।
रिश्ते निभाना सीख जाओगे॥
जो होगा प्रेम रिश्तों में।
तो फिर अहसास आयेंगे॥
इन्हीं अहसास के जरिये।
तुम्हें अल्फाज़ आयेंगे॥
करोगे कद्र जो उनकी।
तो लिखना सीख जाओगे॥
बनोगे प्रेम के तुम लेखक।
खुद को अलहदा ही पाओगे॥
बनोगे तुम तभी विरले।
सदा विरले कहाओगे॥