कह रही है ये प्रकृति कुछ संभल जाओ अब तो ज़मीं वालों परिन्दे उड रहे आज़ादी से गगन में कैद हैं हम तुम सभी अपने आशियाने में ।
कब तक झेलेगी वो मनमानी तुम्हारी कभी तो ऊगल देगी यूँ ही कहर को सुधर जाओ ये चमन अपना है क्यूँ लगे हो अपने ही घर को जलाने में ।
सुनो इस सन्नाटे में गूंजती आवाजों को प्रश्न कर रही सबसे दिया जो है, वही तो पाओगे थमी है रफ्तार जीवन की हवा भी जहरीली है कितने दर्द झेलें हैं इस धरती ने अकेले ही।