सारी दुनिया संत नही है

सारी दुनिया संत नही है
हर इक महिमावंत नही है ।
रस से भीगा तन-मन फिर क्यों,
कह दे आज बसंत नही है ॥

विरहन जाने पीर विरह की,
निज घर जिसका कंत नही है ।
कोई विस्मृत कर न सकेगा,
हर कोई दुष्यंत नही है ॥

सम्भव पीर प्रबल बड़घाती,
पर जीवन पर्यंत नहीं है ।
सुख की खोज निरंतर जारी,
इच्छाओं का अंत नहीं है ॥

मंजिल कितनी दूर न देखो,
कोई राह अनंत नही है ।
‘मोही’ जीवन-प्रश्न जटिल पर
हल है, किंतु तुरंत नही है ॥