इतना प्रिय ! पावन प्यार करो
दीपक हिय का प्रिय बार धरो
खुशियाँ सारी स्वीकार करो,
मुझ पर जितना ऐतबार तुम्हें
खुद पर उतना ऐतबार करो ।
मिलने का उपक्रम एक नहीं
तुम चाहे जितनी बार करो,
मिल कर भी जैसे हम न मिले
कुछ ऐसा पहली बार करो ।
मैं अर्पित सम्मुख मौन सदा
फलतः मनतः अधिकार वरो,
तरकस में जितने तीर सुलभ
मुझ पर चुन-चुन कर वार करो ।
छलनी कर दें जो तीर हृदय
कुछ ऐसे सर संचार करो,
चाहत इतनी, मुस्कान लिए
सम्मुख मेरे, श्रृंगार करो ।
अपलक ही निरखूँ रूप सुधा
इतना गहबर मनुहार करो,
दामन पर रंचिक दाग न हो
इतना प्रिय ! पावन प्यार करो ।
हर लो सखि ! “सागर” पीर प्रबल,
पहले खुद को तैयार करो ।