न जाने कब से आसमां अंगारों मे जलता रहा है दहकते शरारों को जमीं और चाँद मे बदलता रहा है इन्सानों का हाल भी कुछ आसमां के जैसा है जो हैवानियत को इंसानियत के साँचे मे ढलता रहा है।
पर अब ये सिलसिला बदल रहा है जैसे चाँद भी अंगारों सा जल रहा है जैसे इन्सानो की इंसानियत फ़ना हो रही है हैवानियत का रूप ले जवां हो रही है।
गर चलता रहा ये सिलसिला तो आसमां रोएगा जला के खुद को प्रलय के आगोश मे सोएगा जीना है आसमां को तो चाँद को जीना होगा हैवानियत मे इंसानियत का अक्स संजोना होगा गुनहगार को मिटाने से इंसान ही मिटेगा गुनाह के मिटने मे इंसा की जिंदगी है मिटाने का हक़ यहाँ किसको मिला है बनाते रहने मे ही खुदा की बंदगी है।