दौर-ए-मोहब्बत देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत' दौर-ए-मोहब्बत का आगाज हैकि हर कोई खुद को दीवाना समझता है।निगाहों निगाहों ने मुलाक़ात क्या कीमोहब्बत मे खुद को जमाना समझता है। तनहाई के ग़म सहना न चाहेजुदाई की आग मे जलना न चाहेजलने की चाहत बिना ही किएक्यूँ खुद को शमा का परवाना समझता है। ऐतबार नही जिनको अपने दिल परवो कैसे किसी का सहारा बनेगेमजबूरियों के बहाने बनाकररुसवा मोहब्बत को करते रहेंगेमोहब्बत नही नाम मजबूरियों कामज़बूर क्यों फिर जमाना समझता है। फिर मिले हो दिल के फ़साने मिलें हैकितनी यादों के मंजर सुहाने मिले हैंउम्रभर जीने की हसरत नही है यहांएक पल मे सदियो के तराने मिले हैं मोहब्बत की अजमत से आबाद होके भीवो खुद को जहां मे बेगाना समझता है।