किसे अपना कहें
बेगानों के इस शहर में हम किसे अपना कहें,
दिल भी दुखाने के लिए कोई सामने आता नही।
ख़ुशी की आरजू थी ग़म भी नही मिले यहाँ,
इस हाल मे रहकर अब और जिया जाता नही।
जश्न-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह अबके मनायेगे,
रोयेंगे मगर आँख में आंसू नही लायेगे।
क्यों उनकी याद में यहां खुद को भुलाये बैठे हैं,
जिनको कभी शायद मेरा ख़याल भी आता नही।
ये नफरतों का सिलसिला तो बस नज़र की भूल है,
तुम रहो आबाद तो ये भूल भी क़ुबूल है।
अब यहाँ तनहाइयां ही मेरी राज़दार हैं,
इनके सिवा कोई और मेरा साथ निभाता नही।
सोचता हूँ क्यों किसी को बेवफा का नाम दूं,
दो पलों की ज़िन्दगी में मौत सा इल्ज़ाम दूं।
उस मायूस पंछी को एक रोज चले जाना ही था,
सूखे दरख्तों पे कोई आशियां बनाता नही।
किसको सुनाये दास्तां कोई ग़म का आदी नही,
सब मील के पत्थर हैं कोई राह का साथी नही।
पूछो तो बता देंगे सब राज़ रास्तों के,
पर साथ देने के लिए कोई कदम बढ़ाता नही।