अंध-विश्वास

यूँ तो उन दिनों आज वाले ग़म नही थे
फिर भी बहाने बाजी में हम किसी से कम नही थे।
जब भी स्कूल जाने का मन नही होता था,
पेट मे बड़े जोर का दर्द होता था।
जिसे देख माँ घबरा जाती,
और मैं स्कूल ना जाऊं इसलिए,
बाबू जी से टकरा जाती ।
मैं अपनी सफलता पर बहुत इतराता,
दिन भर अपनी टोली संग उत्सव मनाता।
बाबू जी मेरी चाल समझ तो जाते,
पर मां के आगे कुछ कर नही पाते।
एक बार की बात,
कई बरस के बाद,
हमारे गांव में बाइस्कोप आया;
जिसे देखने को बच्चे बूढ़े
सबका मन ललचाया।
पर बाइस्कोप देखने के समय
स्कूल की कक्षाएं चलती
जिसके कारण हम बच्चों की
दाल बिल्कुल नही गलती ।
पर मुझे भी बहानेबाजी के
नए प्रतिमान गढ़ना था,
इस बार पेट दर्द के बजाय
मिर्गी का दौरा पड़ना था।
पर नाटक उम्मीद से ज्यादा
नाटकीय हो गया,
मैं घुमड़ कर गिरा तो
चौखट से टकराया और
सच का बेहोश हो गया।
माँ बाबू जी बहुत घबराए,
गांव के लोग सब दौड़कर आये,
कल्लू, रग्घू,बरखा, बबली,
नीलम,गौतम और बेला
घर के बाहर मेरे लग गया
अच्छा खासा मेला।
किसी ने पानी के छीटें मारे,
कोई बड़ी जोर से चिल्लाया;
किसी ने पंखे से हवा दी,
तो किसी ने पकड़ के हिलाया।
अपना अपना अनुभव गाता,
हर कोई नई जुगत लगाता।
अश्रुधार में माँ डूबी थी,
बाबू जी का जी अकुलाता।
व्यर्थ हुए जब सारे करतब,
थमा कोलाहल प्रात हुई तब;
चेतनता मुखरित हो आयी,
मै जागा और ली अंगड़ाई।
फिर याद आया बाइस्कोप,
अभिनेता का अभिनय खूब,
आंख मूंदकर चिल्लाऊं,
फिर एक दम से चुप हो जाऊं,
सिर के बाल पकड़कर नोचूँ,
पैर पटक कर धूल उड़ाऊँ।
मैं अपने ही भरम में था,
अभिनय मेरा चरम पे था।
सहसा स्वर कानों में गूंजा,
मुखिया जी का शब्द समूचा,
सारा खेल बिगाड़ गया
अच्छा खासा जीत रहा था,
कि एक दम से हार गया।
सब लोगों का मन टटोल,
मुखिया जी दिए मुँह खोल,
जो यह बालक घबराया है
प्रेतों का इस पर साया है;
ओझा बाबा के पास चलो,
वरना पागल हो जाएगा;
प्रेतों का तांडव दूर करो
बालक घायल हो जायेगा।
सबने हाँ में हाँ मिलाई,
और फिर मेरी शामत आई।
भस्म रमाये औघड़ बाबा,
खुद भूतों का लगता दादा;
मेरी आँखों मे आंखे डाल,
मंत्र पढ़े और करे सवाल,
क्यों इसको तड़पाया है,
बोल कहाँ से आया है
जाता है कि चप्पल से पीटू
या धरती पर रगड़ घसीटू।
आंख खुली की खुली रह गई,
भय से मेरी घिग्घी बंध गई
अपनी ताकत आजमाता है,
तू मुझको आंख दिखाता है,
बाबा ने चप्पल से पीटा,
फिर धरती पर रगड़ घसीटा;
आग जला कर भस्म उड़ाता,
धुँआ उड़ा कर प्रेत भगाता।
ठंडे पानी के छींटे मार,
धोबी सा मुझे दिया पछाड़;
बड़े दर्द से मैं चिल्लाया,
मां की ओर उछल कर आया;
फूट फूट कर रोया खूब
भाड़ में जाये बाइस्कोप।
इक पल का न समय गंवाना,
माँ मुझको स्कूल है जाना;
मुदित हुई मां मुस्काई,
आँचल में फिर मुझे छिपाई।
बोली धन्यवाद मुखिया को,
औघड़ बाबा को सुखिया को
भूत प्रेत को मात दिया;
सबने दुख में साथ दिया।
कैसा भूत और कैसा प्रेत,
सोच रहा मै मन ही मन मे;
प्रगाढ़ हुआ मेरे नाटक से
अंध विश्वास वहां जन जन में।
सब मेरे ही कारण था,
मैं प्रत्यक्ष उदाहरण था ;
इसी भांति अंध विश्वास फैलता
भूत प्रेत स्मृति में पलता।