उलझे लोग देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत' कहीं भी जाऊँ गुल दोस्ती के खिल जाते हैं मुझे मेरे जैसे लोग हर जगह मिल जाते हैं। गरीबों के लिए ही बने हैं सारे नियम कायदे अमीरों के लिए सियासत के होंठ सिल जाते हैं। डिगते नहीं है जो तमाम आंधियों की चोट सेवो किसी अपने की शातिर फूंक से हिल जाते हैं।कतरा कतरा रेशा रेशा समझ सको तो ही बेहतर हैधागों में उलझे लोगों के अक्सर तन छिल जाते हैं।