जेठ की दोपहरी

जेठ की दुपहरी तन मन जला रही है,
तेरे आने की कशिश जगा रही है।
तेरी बाहें हो जैसे शीतल छाया,
तेरे आगोश की ठंडक बुला रही है।

तेरे आने की कशिश जगा रही है।

जेठ की दुपहरी तन मन झुलसा रही है,
तू आ के मेघ रूपी शीतल स्पर्श से
जैसे तपन मेरी बुझा रही है।
गरम रेत सी जिन्दगी में
तेरे आने की उम्मीद जगी है।
उस आहट में होठों की ठंडक
मन को हर्षा रही है।

गरम तपती दुपहरी तुझे कब से
बुला रही है,
तेरे आने की कशिश जगा रही है।
हाँ तेरी मेरी कशिश की ठंडक
रोम रोम हर्षा रही है।
तुझको बुला रही है।
तुझको बुला रही है॥