न जाने महबूब का नाम कैसे लेंगे

हाथ छूने में भी वो हाथ कांपते रहे,
न जाने महबूब का नाम कैसे लेंगे।

अब वो दीदार कहाँ रहे कि
सनम जुल्फों के झरोखों से देख लेंगे।

अब यादों में वो तड़प कहाँ रही कि
उन्हें हिचकियों से जान लेंगे।

अब आहट में वो बात कैसे रहे कि
घुंघरू से उन्हें पहचान लेंगे।

अब रूह तक सरसराहट कहाँ रही कि
वो अदब से मेरा नाम लेंगे।

अब महबूब, महबूब ही न रहे कि
इश्क़ की गहराई को जान लेंगे।