विधवा का दर्द

आई थी कभी मै भी
दुल्हन बन कर घर में
नये अरमान लिए दिल में
चारो और खुशियाँ थी
और थी सुख की घड़ी ।

कुछ ही दिनों में
छा गया सन्नाटा मेरी जिंदगी में
पति मेरा था फौज में
जो शहीद हो गया फौज की लड़ाई में
विरह की वेदना से मै टूटी
सारे सपने और खुशियाँ मुझसे रूठी
लगा माथे पर विधवा का टीका
टूटा दुखों का पहाड़
समाज के तानों का भी लगा अम्बार
सब कहे मुझे अभागन
ना कोई मेरी पीड़ा समझे
ना कोई बाँटे दुख
रोती रोती कब सो गई
और अपनी सुध बुध जैसे खो गई
बीता भी नही था महीना एक
ना छूटी थी हाथों की मेंहदी
सफेद साड़ी जब पहनी
सिंदूर भी गया सहम
चूड़ियों का भी टूटा वहम
मंदिर के हुए बंद दरवाजे
भला विधवा को क्यों कोई नवाजे
समाज अगर विधवा को अपनाता
कोई बाप अपनी बेटी के जीवन को
अधूरा ना कह पाता।

क्यों हक नही मुझे लाल जोड़ा पहनने का
अपने सपनों को साकार करने का
आती है जब खबर किसी शहीद की
याद आती तब टूटी चूड़ियाँ और लाल साड़ी
आ गई बेचारी एक और अभागी
अभी तक दुनिया
हमारे लिए क्यों नहीं जागी।