इश्क़

इश्क़ में कोई छोटी बड़ी जात नहीं होती
इसमें कोई छुआछूत की बात नहीं होती
जवां दिल मचल जाता है कहीं पर यूँ ही
पर दिन में चाँद से मुलाक़ात नहीं होती।

जिस्म तन्हा,बेचारा जां भी तन्हा क्या करे
छाती हैं काली घटाएँ,बरसात नहीं होती
टुकड़े-टुकड़े में बीत जाता है दिन अपना
मगर मुझसे अब वो खुराफ़ात नहीं होती।

हुस्न की पनाह में इश्क लेता है साँसें
उस संगमरमरी बदन की जात नहीं होती
जिस सूरत को मैंने देखा कहीं और नहीं
बात इतनी है उससे मुलाक़ात नहीं होती।

कुदरत हमारी जरुरत की हर चीज बख्शी
लोग रहते घमंड में, बस बात नहीं होती
कत्ल कर देती हैं बिना तलवार से नजरें
दूर – दूर रहने से रंगी रात नहीं होती।

प्यार के कितने भी टुकड़े तुम कर डालो
मगर ‘मोहन’ चाहत कभी कमजात नहीं होती
मजे में रहो और खुश रहो ऐ! दुनियावालों
बुजुर्गों की दुआ से कम औकात नहीं होती।