प्रीत(कुंडलिया)
अंखियां अंखियों से मिली, जुड़े हृदय के तार।
रोम-रोम बजने लगी, मन वीणा झंकार।।
मन वीणा झंकार, मधुर सी टीस जगाए।
पिया दरस होई जाय, जिया बस इतना चाहे।।
कहे ‘राज’ कविराज, छेड़ती सारी सखियां।
क्यूं कर गौरी आज, है व्याकुल तेरी अंखियां।।
दिवस पूर्ण व्याकुल रहे, तड़पे सारी रैन।
पिय परदेशी ले गया, गौरी का सुख चैन।।
गौरी का सुख चैन, ये मुख से कुछ ना बोले।
देखे पिय की राह, बावरी हो कर डोले।
कहे ‘राज’ कविराज, व्याकुल हुई प्रेमवश।
सांसारिक सुख भूल, काटती माह औ दिवस।।
रीत प्रीत की है अजब, जान सके न कोय।
दमन शमन न हो सके, होनी है तो होय।।
होनी है तो होय, सोचकर की ना जाए।
अनायास ही ‘राज’, कोई क्यूं कर भा जाए।।
तन मन सब कुछ हार, तब मिलती है ये जीत।
अब तुच्छ लगे संसार, यही प्रीत की अद्भुत रीत।।