दिवाली
लो जी मना ली आज़ाद भारत ने एक और दिवाली
छाई लेकिन देश में अब भी है सब तरफ बदहाली।
गरीब बेचारा दिनों दिन गरीब ही होता जा रहा
अमीरों में लेकिन आती जा रही निरंतर खुशहाली।
किसान बेचारा दब कर रह गया कर्ज़ों के बोझ से
मज़दूर मेहनतकश के घर में पसरी वही तंगहाली।
बेरोजगारी फैलती ही जा रही सुरसा के मुहं की तरह
खूब पढ़ लिख कर भी नौजवान बैठे घर में खाली।
आतंकवाद नक्सलवाद अलगाववाद थम रहा नही
नेता लोग बस व्यस्त हैं देने मे एक दूसरे को गाली।
बलात्कार कर हत्या करने की घटनायें बढ़ती जा रहीं
अपराधियों ने तो जैसे न सुधरने की कसम ही खा ली।
छोटी छोटी बच्चियाँ तक बन रहीं, हवस का शिकार
सेक्स के भूत ने दिलो -दिमाग में जड़ें इनके जमा लीं
महिलायें एक अनजाने से डर से रहतीं हर समय घिरीं
सिस्टम हुआ फेल कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमरा ली।
जीना हो रहा मुश्किल आत्महत्या को गले लगाने लोग
भ्रष्टाचार ने सरकारी मददें चूहे की माफिक कुतर डालीं।
विकास हो रहा जीवनस्तर भी बहुतों का काफी है सुधरा
देश में फैली अभी भी पर घोर गरीबी गंदगी बदहाली।
सही मायनों में दिवाली तो तभी मनेगी हमारे देश की
सब के सर पर होगी छत जब ढूंढ़ने को भी न मिलेगी कंगाली।