ओ बसंत
ओ बसंत
तुम तो आते हर साल बाद पतझड़ के हो
इस बार मिला पतझड़ मुझको
जाता पतझड़ था पूछ रहा
कैसा होता होगा बसंत ?
पतझड़ कहता मैं हूँ आता
मिलने हर साल बसंत तुम्हें
हर डाल से झड़ता जाता हूँ
हर डाल डाल पर ढूंढ़ तुम्हे ।
ओ बसंत
तुम अपने सुख की हरियाली में
दुःख पतझड़ का भूल गए हो
जाता पतझड़ था पूछ रहा
कैसा होता होगा बसंत ?
वो आता एक तुम्हारी खातिर
पर तुमको वो न पाता है
हर साल अकेला आता है
हर साल अकेला जाता है ।
ओ बसंत
क्या तुमको लगता तनिक नहीं
तुम भी कुछ दर्द सुनो उसका
जाता पतझड़ था पूछ रहा
कैसा होता होगा बसंत ?
एक पल सोचो, क्या होता
गर ये पतझड़ ही न होता
क्या दुनिया में फिर इंसां को
तिरे आने से मतलब होता ।
ओ बसंत
क्या तुमको लगता तनिक नहीं
तुम भी कुछ पीर सुनो उसकी
जाता पतझड़ था पूछ रहा
कैसा होता होगा बसंत ?
कभी तुम भी उसके, जाने के पहले आकर
कुछ दिल का हाल सुनो उसका
मुझको लगता कुछ पीर दबी भीतर उसके
कुछ दर्द तो तुम भी हरो उसका ।
ओ बसंत
कुछ सुख तुम बांटो अपने
और कोई कहानी सुनो उसकी
जाता पतझड़ था पूछ रहा
कैसा होता होगा बसंत ?
गर रूठ गया जो ये पतझड़
जो अबकी बार न आया ये
सुन लो बसंत तुम भी अपनी
फिर से बहार न पाओगे
न बौर आम पर आ पाएंगे
न महकेगा उपवन कलियों से
जीर्ण हो चुकी काया को
तुम कैसे जवाँ बना पाओगे ?
ओ बसंत
होगी बहार भी तो साथी तेरी
उससे कहकर ही पतझड़ को
तुम अब बहार से मिलवा दो
जाता पतझड़ था पूछ रहा
कैसा होता होगा बसंत ?