प्रारब्ध

जीवन तो रैन बसेरा है
भोर भये उड़ जाना है
प्रारब्ध तो एक इशारा है
इससे परिचित जग सारा है।

कभी खुशी तो कभी है गम
पल पल घटता जीवन व तन
प्रारब्ध का रूप विशाला है
मन कर्मों की रंगशाला है।

चले पखेरू जो पंख पसार
उडे़ कितना भी गगन के पार
आना उन्हे धरा पर है
प्रारब्ध का रूप निराला है।

बुरे कर्मो का बुरा ही फल
मिले हमें इसी जीवन में
प्रारब्ध यही, यह निश्चित है
जीवन धारा के अनुक्रम में।