देव नदी गंगा

कल कल, छल छल तुम बहा करो
नव निश्चल सी तुम चला करो
अपने मीठे जल के स्रोतों से
प्रकृति को अभिसिंचित किया करो।
तेरे हैं पावन नाम अनेक
जिसमे बसते हैं भाव अनेक
हर बूँद में अमृत का वास सा है
कुछ करुणा और विश्वास सा है।

सबके दुःख को तुम महती हो
देवो के तुल्य है मान तुम्हारा
कहते सब विश्रुपगा तुम्हें। 

किया भागीरथ ने कठिन तप
ले आये तुझे धरा के पथ
चली तीव्र में लिए वेग
शिव ने मस्तक में तब वरण किया।

आकर धरती पर किया उपकार
हर जीव का किया जीर्णोद्धार
दे कर अपने जल का मधुर उपहार
किया हमें भवसागर से पार।

माँ सा इनका भी मान करो
मत इन पर अब अत्याचार करो
मत करो इन्हे यूँ दूषित सभी
हो जायेगी फिर विलुप्त कभी।