चहक

अब भी बुलबुल की चहक में
वो चहचहाहट है,
उसके नर्म पंखो में
वो गरमाहट है।

संकुचित है वह भी
कुछ ही जगहों पर,
फैलाव अब भी है
उसकी हर उडा़न में।

मौन वह भी है
अपने आशिंयाने में
ये ना बता पाने का
दुख भी नही है उसे।

वायु की सूक्ष्म आहट अब भी
ड़राती है उसे,
झरने की तरल बूँदे अब भी
प्यास बुझाती है उसकी।

दानों के लिए दूर तक
चली जाती है अब भी,
घोंसले के लिए तिनके
जुटाती है अब भी ।

नन्हें पंछी को उड़ना
सिखाती है अब भी,
अंबुद की गहराईयों में
उतर जाती है अब भी।

करना चाहिए उसे भी
इन पर निरुद्देश्य अभिमान,
बन जाना चाहिए एक पंछी।

तभी कर पायेगी वह
अपने सपने साकार।।