समय

समय से जूझता एक मानव
कहता है…
समय रुको!
मुझे समझने दो मानव
होने का बोध,
मानव में निहित भाव को,
धैर्य उत्साह और साहस को
एक कड़ुवाहट को,
जो छिन्न-भिन्न करता है
मानव स्वभाव
के दर्पण को।

टूटते उस मनोभाव की उड़ान को
जो प्रदर्शित करते हैं अवसाद
अनेकों अवसाद
जो विचलित करते हैं
मनोवेगों को
रक्त सी बिखरी ओंस की कुछ बूँदे
जिसकी पारदर्शिता में है भ्रम
जो कसमसाती है अपने अस्तित्व
का बोध कराने को।