अस्तांचल

आजकल दिन ढलता है बडी़ देर से
शाम की गहरायी भी आती है देर से
गगन की तलहटी में फैला यह अविश्वास का पल
कुछ रुलाता सा महसूस होता है,
छिटपुट लोग ही बतियाते नजर आते है
चिलचीलाती धूप में छांव भी कुछ मद्धम हो गयी है
हवा भी कुछ बेरुखी सी हो गयी है
तप्त रेत सा जलता ये शहर
औटते लोग कुछ बेईमान से हो गये है
तलैया की मछलियां अब घर बनाने लगी है
कुंजन करती गौरेया अब बरामदे में नहीं आती
झूठ का दौर अब समाप्त हो गया है
लोग असलियत पर आ गये है
आँख-मिचौली करता
संसार का ये नग्न भविष्य
अब दुर्बल हो चला है
लोग अब अंधेरे का इंतजार नहीं करते।