विरह प्रणय
छोड़ कर फिर से हठ निर्बल
तुम मेरा विरह वरण करती
इस क्षुद्र से निर्मित अणुओं पर
तुम ब्यर्थ समर्पण कर देती।
बिसरा कर अपना क्षोभ भाव
फिर मेरा दुःख सब सह लेती
मैं क्षण क्षण तुम पर हारा हूँ
तुम क्षणिक ये अनुभव कर लेती।
कौतुहल की इस बेला में
तुम मौन निवेदन कर देती
इस मन का भाव वचन करती
यह ह्दय ताप सब सह लेती।
करके अर्पण तुम प्रेम धन्य
मुझको फिर ऋणी कर देती
मैं लेकर तेरा प्रेम मोल
फिर जग से नाता कर लेता।
मै भूल चुका हूँ पथ भी वह
जिस पर तुम दीप जलाती थी
जीवन का शूल बना वह भी
जिस पर तुम पुष्प बिछाती थी।
वापस ना लौटूँ सोंच के यह
बैठा हूँ जग के शीर्ष पर मैं
तुम नाप के अपनी पग दूरी
फिर मुझको अपना कह देती।
जग की मर्यादा झूठी है
इस भ्रम को व्यर्थ बता देती
तुम छोड़ के यह वैरागी मन
तुम मेरा तन भी ले लेती।
धर कर जोगन का रूप प्रिये
इस जग को फिर बिसराओगी
छोड़ के तुम यह पुष्प सेज
मृग छाल से स्नेह लगाओगी।
इस तपती निर्जन देवगिरि
तुम धैर्य कहाँ रख पाओगी
क्षण भर भी मेरा स्मरण शेष
यह सत्य कहाँ झुठलाओगी।
भरकर कंठो में प्रीत राग
मैं प्रेम सुधा बरसाऊँगा
निश्चित ही तेरे लय में घुल
वह देव सानिध्य तक जाऊँगा।
लौटोगी फिर तुम निश्चित ही
इस जीवन के निर्जन वन में
इस हठ में मै भी बैठा हूँ
इस विरह प्रणय के उपवन में।