शहर

ख्यालों में खोया शहर,
सहारा कब बना दीवार?
लड़खड़ाया कदम किसी पहर,
शायद खुद हुए शिकार ।
गिरे हुए अकेले बेघर,
पत्थरों में ढूंढते संसार ।
आंखों में नीर मगर,
रंगमंच के हम किरदार ।
पीना था मधुशाला उमर,
सो कुदरती कहां प्यार ??
हवा में गंध मंजर,
गर्दिश में है बहार ।
छल छलका है प्रियवर,
तिमिर भी साथ सरोकार ।
जनता बेसब्र है सफ़र,
जनतंत्र में खोया चित्रकार ।
शब्दों की मुस्कुराहट ठहर,
गुलाबों में कांटे बरक़रार ।
गुलाबी गालों पर कहर,
गुलाबी रूपए का इजहार ।
जुगनू का दस्तक अंदर,
बाहर चांद भी तैयार ।
महफ़िल से आए हमसफ़र,
वीणा की ध्वनि तार-तार ।
मनवा ताजमहल नहीं ऊपर,
बेपर्दगी में वेदना यादगार ।
खुली खिड़की से नज़र,
ख्वाबों पर खंजर बेशुमार ।
नदी विचलित नहीं लड़कर,
सच पर पर्दा गुनहगार ।
मंजिल जंगल तक ज़िगर,
आईने का गिरना हार ।
कश्तियां पर जाल तेवर,
केवटों के आस-पास श्रृंगार ।
उफ्फ! गर्मी का असर,
बेवफा बादल ,पसीना बारम्बार ।
मेंढक तभी करें टर-टर,
बरसने का लगाया गुहार ।
भूख साथ लहू कसर,
अन्याय सहता रहा यार ।
नमकीन कब से सागर,
मीन को किसका इंतज़ार ???