मानक

इश्क को सूरज कह,
कुछ तू भी सह !
चांद भी पास रह,
फलक तक क्यों वह ?
सितारों का क्या फतह ,
परछाई से पूछा सतह !!
हवा का कहां जगह,
दिल के करीब वज़ह !!!
छल -कपट ,
मृगतृष्णा,कलह
कुछ-कुछ तिमिर की तरह ।
आंसू नहीं कभी बेवजह,
सागर में अथाह तह ।

मातहत मंजर का दस्तक,
प्रकृति पर निर्भर हक़ ।
नियति की है सनक,
तलाशने में मदद मानक ।
पथिक सौदा की भनक,
फिर यादगार है ललक ।
शून्य नहीं कोई संवाहक,
यही स्वर्ग और नरक ।
सामने पत्थर की सड़क,
शायद प्रकट कुछ महक ।
अकेले बढ़ना है प्रेरक,
तभी कारवां बनेगा घटक ।