पागल
तरू के मर-मर पात
कर कुछ अपनी बात
हरियाली यथार्थ में ज्ञात
कभी कुछ होता अज्ञात
जब से उभरे जात
पाया पागल अंधेरी रात
कभी सोचा नाहक बरसात
कुछ छल से खाएं मात
हवा से उलझे कायनात
परछाई भी करते करामात
अवाक जीवन के सौगात
कहीं ठिठका खड़ा प्रात
खिड़कियां पार पिघलना शुरुआत
कुछ शेष नहीं खैरात
आदान-प्रदान की बहुतायत जज़्बात
यह प्रीत नहीं वारदात
छलक गया है जंगलात
पत्थरों की है बारात
चांद का देख हालात
सितारें उभारे बारम्बार सवालात
दिल में भी हवालात
धूप भी रचा व्याघात
पगडंडी पर भी मुलाकात
समझाया भले-बुरे भी ख्यालात
कागज,कलम और दवात
सर्वत्र जूठन है साक्षात
वित्त की वासना आत्मसात
जुल्फों के रंग-ढंग विराट
कुछ बेकारी में तहकीकात
कुछ बेकरारी में ठाट-बाट
किंतु महफ़िल क्षणिक ललाट
बगावत ने किया बहुबात
ऐ शतरंजी विख्यात बिसात
कीचड़ में धंसा लात
सोया हुआ रहा जमात
सम्मुख मनवा भी नवजात
खेल बना गवाह घात-प्रतिघात
किरदारों के निर्णय आपात
देश, संविधान के पश्चात
कोई अस्तित्व नहीं कांट
गुमराह करने की चांट
अब भटकते रहेंगे घाट-घाट
टूटी पड़ी है खाट, गद्दारों
सुनो अब डांट
नाहक के तेरे हाट
बंद करें ये प्लाट
ग़लत न लगा इल्ज़ामात
रोकेंगे हम तमाम झंझावात।