मद

पहुंच का मंजर ग़ज़ल है,
शेष के न हल हैं ।
ठीक-ठाक यहां महल है,
सत्य हरिश्चन्द्र तो पागल है ।
मद में कुछ चंचल हैं,
नाटक बहुत ही सफल है ।
मजदूर भी तो विकल है,
काजल की कोठरी धरातल है ।
न्याय नहीं तो छल है,
नयन में न काजल है ।
शायद अंदर-बाहर बस रसातल है ,
क्या सचमुच नहीं कोलाहल है ?

भूख और व्यापक गरल है,
मजबूरन कुत्ते भी घायल हैं ।
पारदर्शिता तो नहीं अमल है,
नेता होना सुखी सरल है ।
बचपन भी नहीं असल है,
कागज़ पर सबकुछ अटल है ।
अमीर के लिए फल है,
गरीब के दुर्दिन प्रतिफल है ।
मां के फटे अंचल है,
गर्मी में भी कम्बल है ।
कसाई के सर्वत्र चहल-पहल है,
बकरियां तो मरी पल-पल है ।
ख्वाब भी तो अटकल है,

जमीन पर टूटी पायल है ।
हवा नहीं अभी शीतल है,
कई नाहक में दखल हैं ।
याराना होने के नकल हैं,
सोचों क्या होता आजकल है ??
मुरझाये हुए हमारे शक्ल हैं,
प्रियतमा ! गुम हीं अक्ल है ।

फटना गुब्बारा न कौतूहल है,
कीचड़ और खिला कमल है ।
कैसे-कैसे कारनामे हुए प्रबल हैं,
कैसे हमारे वर्तमान उज्जवल है ?
सफेदपोशों के भी जंगल हैं,
जनता के खिलाफ खटमल हैं ।
सब्जबाग के उगे फ़सल हैं,
सामाजिकता के नारे असफल हैं ।