चमकती दामिनी गरजते मेघ बरसता सावन याद आ गया मध्यम लालटेन की रोशनी में वो चाय वाला याद आ गया कभी जमती थी दोस्तों की महफिल वो समां याद आ गया गरम समोसे थे, थी जलेबी, चाय का कुल्हड़ याद आ गया।
किसकी जेब से निकलेंगे पैसे, हां वो झगड़ा याद आ गया चौराहे की रौनक खंभे थे, लोहे के वो फुआरा याद आ गया एक साइकिल थी तीन दोस्त बारी से चलाना याद आ गया कभी भीगे, कभी सर्द रातें, भीषण गर्म मौसम याद आ गया।
चाय पीने का तो बहाना था महफिल जमाना याद आगया कुछ शेर हो जाते थे कुछ गज़ल गुनगुनाना याद आ गया काश फिर लौट आये वो दिन वो मुस्कराना याद आ गया ना हँसे कभी खुल के अब तलक वो चेहरा याद आ गया ना भूलना वो समां ‘राजन’ कीमती वो समां याद आ गया।