अपराजिता

हूँ आज मैं यह सोंचती
यह है मेरा प्रतिकार शायद
क्यों तू लज्जित आज खुद पर
है तुम पर मेरा अधिकार शायद

है आज क्यों यह हृदय विकल
क्यूँ अश्रुपूर्ण है नेत्र सज़ल
क्यूँ आज हूँ मैं “पराजिता”
मैं थी कभी “अपराजिता“…

हूँ अकेली इस धरा पर
आज मैं यह मानती
है काँटों से पहचान मेरी
बात मैं यह जानती
कोई पथिक न साथ है
न राह का साथी कोई
है दिया बुझने लगा अब
न पास अब बाती कोई,

चल रही हूँ मैं निरंतर
पर कदम थकते नहीं
दृष्टि से ओझल मंज़िल मेरी
पर कदम रुकते नहीं
हार कर भी जीतने का
प्रयास कर रही हूँ
अपने अंदर के आत्मबल का
मैं विकास कर रही हूँ
नहीं बनना मुझे “पराजिता ”
मैं हूँ “अपराजिता”,
मैं हूँ “अपराजिता“……।